बचपन सहबाला और हमारी आस - रचनाकार... जितेन्द्र कुमार दुबे


बचपन में.....

जब हम शादी विवाह के

कार्यक्रम में कहीं जाते

विशेषकर लड़के की शादी में...

तमाम नातेदारी रिश्तेदारी से  

आए हुए बच्चों में, 

एक विशेष प्रतिद्वंदता दिखती

सहबाला/बलहा बनने की.....!

हर बालक सहबाला बनने को

सोचा करता था...

अपने-अपने तर्क दिया करता था

उपयुक्तता पुष्ट करने को...! 

इसी बीच बाजार से खरीद के बाद 

दूल्हे की शेरवानी के साथ-साथ

सहबाला की शेरवानी-टोपी

घर आने के बाद तो 

उनमें अतिरिक्त उत्साह का

सृजन होता था.... 

मित्रों परोजन की इस जुटान में 

आए लोग अपने-अपने बच्चों में

सहबाला बनने की आस जगाकर

सभी हिदायतें अच्छे से

मनवा भी लेते थे.... 

उन दिनों सहबाला बनने के, 

अपने फायदे भी होते थे

डोली-पालकी में दूल्हे के ही साथ 

लगभग दूल्हे वाला ही श्रृंगार

दूल्हे की गाड़ी में ही

बैठ कर जाना...

(भले किसी की गोद में जाना हो)

पूरी बारात में अतिरिक्त खयाल

और ससुराल पक्ष में...

विशिष्टता का अनुभव मिलता था 

पूर्व की शादियों में...! 

बच्चों द्वारा देखा गया यह सच

उन्हें सहबाला बनने के लिए

सदा ही प्रेरित करता था

पर बंधुओं.....! 

अफसोस इस बात का है कि

हम जैसे कई बच्चे

अनायास ही ऐन वक्त पर 

इस दौड़ से बाहर हो जाते थे औऱ

ननिहाल आया भगिना/भांजा

अक्सर बाजी मार ले जाता था...

इतना ही नहीं सहबाला तो दूर

कभी-कभी हमारा नाम...!

बारात से भी निकाल दिया जाता

और हमारी नाराजगी

कसम से अगली बार....

सहबाला बनाए जाने के

आश्वासन पर दूर कर दी जाती थी

ऐसी दशा में लुटा-पिटा सा मैं

बाद परोजन.... 

तमाम शिकवा-शिकायत लिए

वापस अपने घर आ जाता था

पर,क्या कहूँ मित्रों ...

उन दिनों मन में 

सहबाला बनने की लालसा

ऐसी होती थी कि,

निमंत्रण मिलने पर

हम अक्सर जिद करते हुए

परिजनों के साथ

सहबाला बनने की आस में

हर रिश्तेदारी में चले जाते थे

बंधुओं यद्यपि आज भी 

बचपन की यह लालसा 

बहुत याद आती है

किन्तु अब यह भी सोचता हूँ कि

सहबाला बनने की 

उपयोगिता क्या है....?

शादी-विवाह कार्यक्रम में 

इसकी जरूरत क्या है....?

और हम इसके लिए

इतने परेशान क्यों रहा करते थे..?

यह सोचने पर अब... 

खुद पर ही हँसी आती है.....!

खुद पर ही हँसी आती है......!



रचनाकार...

जितेन्द्र कुमार दुबे

क्षेत्राधिकारी नगर

जनपद..जौनपुर

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