April 2023

 


सफलता सुविधाओं की मोहताज नहीं होती, अगर लगन के साथ लक्ष्य को हासिल करने के लिए मेहनत की जाए तो सफलता निश्चित मिलती है। ऐसा ही कादीपुर तहसील के सूरापुर कस्बे के निवासी एक युवक ने कर दिखाया है।

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उत्तर प्रदेश में सुलतानपुर जिले के निवासी एक होनहार युवक अलंकार मिश्रा ने अपनी मेहनत के दम पर यूपीएससी में सफलता का परचम लहराया है। युवक का चयन डीपीए यानी डेटा प्रोसेसिंग सहायक के पद पर हुआ है। अथक परिश्रम और माता-पिता के आर्शीर्वाद से अलंकार का चयन यूपीएससी में हुआ है।

बता दें कि अलंकार मिश्रा का चयन संघ लोक सेवा आयोग के तहत डीपीए यानी डेटा प्रोसेसिंग सहायक के पद पर हुआ है। उनकी इस सफलता से उनके माता-पिता सहित परिवार के अन्य सदस्य काफी खुश हैं। साथ-साथ ही कस्बे के लोगों में अलंकार की सफलता से उत्साह नजर आया।

बताते चलें, अलंकार इतने होनहार हैं कि उन्होंने डीपीए में चयन होने से पहले ही यूजीसी नेट क्वॉलीफाई कर लिया था। फिर अपनी लगन और मेहनत के दम पर यूपीएससी में भी सफलता का परचम लहराया। अलंकार के पिता का नाम ब्रह्म कुवंर मिश्रा है। वहीं, उनके बड़े भाई का नाम ब्रह्मेश कुमार मिश्रा है, जो एसआई के पद पर कार्यरत हैं। अलंकार के छोटे भाई केएनआई से एलएलबी किए हुए हैं, जो जिला एवं सत्र न्यायालय सुलतानपुर में वकालत कर रहे हैं। देश की सबसे बड़ी परीक्षा देकर सफलता हासिल करने में अलंकार के माता-पिता सहित उनके पूरे परिवार का सहयोग रहा।



राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का नाम आज सर्वत्र चर्चा में है. संघ कार्य का बढ़ता व्याप देख कर संघ विचार के विरोधक चिंतित होकर संघ का नाम बार-बार उछाल रहे हैं. अपनी सारी शक्ति और युक्ति लगाकर संघ विचार का विरोध करने के बावजूद यह राष्ट्रीय शक्ति क्षीण होने के बजाय बढ़ रही है, यह उनकी चिंता और उद्वेग का कारण है. दूसरी ओर राष्ट्रहित में सोचने वाली सज्जन शक्ति संघ का बढ़ता प्रभाव एवं व्याप देख कर भारत के भविष्य के बारे में अधिक आश्वस्त होकर संघ के साथ या उसके सहयोग से किसी ना किसी सामाजिक कार्य में सक्रिय होने के लिए उत्सुक हैं। संघ की इस बढती शक्ति का कारण शाश्वत सत्य पर आधारित संघ का शुद्ध राष्ट्रीय विचार एवं इसके लिए तन–मन–धन पूर्वक कार्य करने वाले कार्यकर्ताओं की अखंड श्रृंखला है.

संघ का यह विशाल वटवृक्ष एक तरफ नई आकाशीय ऊंचाइयां छूता दिखता है, वहीँ उसकी अनेक जटाएं धरती में जाकर इस विशाल विस्तार के लिए रस पोषण करने हेतु नई-नई जमीन तलाश रही हैं, तैयार कर रही हैं. इस सुदृढ़, विस्तृत और विशाल वटवृक्ष का बीज कितना पुष्ट एवं शुद्ध होगा इसकी कल्पना से ही मन रोमांचित हो उठता है. 

नागपुर में वर्ष प्रतिपदा के पावन दिन 1 अप्रैल, 1889 को जन्मे केशव हेडगेवार जन्मजात देशभक्त थे. आजादी के आन्दोलन की आहट भी मध्य प्रान्त के नागपुर में सुनाई नहीं दी थी और केशव के घर में राजकीय आन्दोलन की ऐसी कोई परंपरा भी नहीं थी, तब भी शिशु केशव के मन में अपने देश को गुलाम बनाने वाले अंग्रेज के बारे में गुस्सा तथा स्वतंत्र होने की अदम्य इच्छा थी, ऐसा उनके बचपन के अनेक प्रसंगों से ध्यान में आता है. रानी विक्टोरिया के राज्यारोहण के हीरक महोत्सव के निमित्त विद्यालय में बांटी मिठाई को केशव द्वारा (उम्र 8 साल) कूड़े में फेंक देना या जॉर्ज पंचम के भारत आगमन पर सरकारी भवनों पर की गई रोशनी और आतिशबाजी देखने जाने के लिए केशव (उम्र 9 साल) का मना करना ऐसे कई उदहारण हैं.

बंग-भंग विरोधी आन्दोलन का दमन करने हेतु वन्देमातरम के प्रकट उद्घोष करने पर लगी पाबन्दी करने वाले रिस्ले सर्क्युलर की धज्जियाँ उड़ाते हुए 1907 में विद्यालय निरीक्षक के स्वागत में प्रत्येक कक्षा में वन्देमातरम का उद्घोष करवा कर, उनका स्वागत करने की योजना केशव की ही थी. इसके माध्यम से अपनी निर्भयता, देशभक्ति तथा संगठन कुशलता का परिचय केशव ने सबको कराया. वैद्यकीय शिक्षा की सुविधा मुंबई में होते हुए भी क्रन्तिकारी आंदोलन का प्रमुख केंद्र होने के कारण कोलकाता जाकर वैद्यकीय शिक्षा प्राप्त करने का उन्होंने निर्णय लिया और शीघ्र ही क्रान्तिकारी आन्दोलन की शीर्ष संस्था अनुशीलन समिति के अत्यंत अंतर्गत मंडली में उन्होंने अपना स्थान पा लिया. 1916 में नागपुर वापिस आने पर घर की आर्थिक दुरावस्था होते हुए भी, डॉक्टर बनने के बाद अपना व्यवसाय या व्यक्तिगत जीवन – विवाह आदि करने का विचार त्याग कर पूर्ण शक्ति के साथ स्वतंत्रता आन्दोलन में उन्होंने अपने आप को झोंक दिया. 

1920 में नागपुर में होने वाले कांग्रेस के अधिवेशन की व्यवस्था के प्रबंधन की जिम्मेदारी डॉक्टर जी के पास थी. इस हेतु उन्होंने 1200 स्वयंसेवकों की भरती की थी. कांग्रेस की प्रस्ताव समिति के सामने उन्होंने दो प्रस्ताव रखे थे. भारत के लिए पूर्ण स्वतंत्रता और विश्व को पूँजीवाद के चंगुल से मुक्त करना, यह कांग्रेस का लक्ष्य होना चाहिए. पूर्ण स्वतंत्रता का प्रस्ताव कांग्रेस ने संघ स्थापना के बाद 1930 में स्वीकार कर पारित किया, इसलिए डॉक्टर जी ने संघ की सभी शाखाओं पर कांग्रेस का अभिनन्दन करने का कार्यक्रम करने के लिए सूचना दी थी. इससे डॉक्टर जी की दूरगामी एवं विश्वव्यापी दृष्टि का परिचय होता है.  

व्यक्तिगत मतभिन्नता होने पर भी साम्राज्य विरोधी आन्दोलन में सभी ने साथ रहना चाहिए. और यह आन्दोलन कमजोर नहीं होने देना चाहिए ऐसा वे सोचते थे. इस सोच के कारण ही खिलाफत आन्दोलन को कांग्रेस का समर्थन देने की महात्मा गाँधी जी की घोषणा का विरोध होने के बावजूद उन्होंने अपनी नाराजगी खुलकर प्रकट नहीं की तथा गांधीजी के नेतृत्व में असहयोग आन्दोलन में वे बेहिचक सहभागी हुए.

स्वतंत्रता प्राप्त करना किसी भी समाज के लिए अत्यंत आवश्यक एवं स्वाभिमान का विषय है किन्तु वह चिरस्थायी रहे तथा समाज आने वाले सभी संकटों का सफलतापूर्वक सामना कर सके, इसलिए राष्ट्रीय गुणों से युक्त और सम्पूर्ण दोषमुक्त, विजय की आकांक्षा तथा विश्वास रख कर पुरुषार्थ करने वाला, स्वाभिमानी, सुसंगठित समाज का निर्माण करना अधिक आवश्यक एवं मूलभूत कार्य है. यह सोच कर डॉक्टर जी ने 1925 में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की स्थापना की. प्रखर ध्येयनिष्ठा, असीम आत्मीयता और अपने आचरण के उदाहरण से युवकों को जोड़ कर उन्हें गढ़ने का कार्य शाखा के माध्यम से शुरू हुआ. शक्ति की उपासना, सामूहिकता, अनुशासन, देशभक्ति, राष्ट्रगौरव तथा सम्पूर्ण समाज के लिए आत्मीयता और समाज के लिए निःस्वार्थ भाव से त्याग करने की प्रेरणा इन गुणों के निर्माण हेतु अनेक कार्यक्रमों की योजना शाखा नामक अमोघ तंत्र में विकसित होती गयी. सारे भारत में प्रवास करते हुए अथक परिश्रम से केवल 15 वर्ष में ही आसेतु हिमालय, सम्पूर्ण भारत में संघ कार्य का विस्तार करने में वे सफल हुए.

अपनी प्राचीन संस्कृति एवं परम्पराओं के प्रति अपार श्रद्धा तथा विश्वास रखते हुए भी आवश्यक सामूहिक गुणों की निर्मिती हेतु आधुनिक साधनों का उपयोग करने में उन्हें जरा सी भी हिचक नहीं थी. अपने आप को पीछे रखकर अपने सहयोगियों को आगे करना, सारा श्रेय उन्हें देने की उनकी संगठन शैली के कारण ही संघ कार्य की नींव मजबूत बनी.

संघ कार्य आरंभ होने के बाद भी स्वातंत्र्य प्राप्ति के लिए समाज में चलने वाले तत्कालीन सभी आंदोलनों के साथ न केवल उनका संपर्क था, बल्कि उसमें समय-समय पर वे व्यक्तिगत तौर पर स्वयंसेवकों के साथ सहभागी भी होते थे. 1930 में गांधीजी के नेतृत्व में शुरू हुए सविनय कानून भंग आन्दोलन में सहभागी होने के लिए उन्होंने विदर्भ में जंगल सत्याग्रह में व्यक्तिगत तौर पर स्वयंसेवकों के साथ भाग लिया तथा 9 मास का कारावास भी सहन किया. इस समय भी व्यक्ति निर्माण एवं समाज संगठन का नित्य कार्य अविरत चलता रहे, इस हेतु उन्होंने अपने मित्र एवं सहकारी डॉ. परांजपे को सरसंघचालक पद का दायित्व सौंपा था तथा संघ शाखाओं पर प्रवास करने हेतु कार्यकर्ताओं की योजना भी की थी. उस समय समाज कांग्रेस–क्रान्तिकारी, तिलकवादी–गाँधीवादी, कांग्रेस–हिन्दु महासभा ऐसे द्वंद्वों में बंटा हुआ था. डॉक्टर जी इस द्वंद्व में ना फंस कर, सभी से समान नजदीकी रखते हुए कुशल नाविक की तरह संघ की नाव को चला रहे थे.

संघ को समाज में एक संगठन न बनने देने की विशेष सावधानी रखते हुए उन्होंने संघ को सम्पूर्ण समाज का संगठन के नाते ही विकसित किया. संघ कार्य को सम्पूर्ण स्वावलंबी एवं आत्मनिर्भर बनाते हुए उन्होंने बाहर से आर्थिक सहायता लेने की परंपरा नहीं रखी. संघ के घटक, स्वयंसेवक ही कार्य के लिए आवश्यक सभी धन, समय, परिश्रम, त्याग देने हेतु तत्पर हो, इस हेतु गुरु दक्षिणा की अभिनव परंपरा संघ में शुरू की. इस चिरपुरातन एवं नित्यनूतन हिन्दू समाज को सतत् प्रेरणा देने वाले, प्राचीन एवं सार्थक प्रतीक के नाते भगवा ध्वज को गुरु के स्थान पर स्थापित करने का उनका विचार, उनके दूरदृष्टा होने का परिचायक है. व्यक्ति चाहे कितना भी श्रेष्ठ क्यों ना हो, व्यक्ति नहीं, तत्वनिष्ठा पर उनका बल रहता था. इसके कारण ही आज 9 दशक बीतने के बाद भी, सात–सात पीढ़ियों से संघ कार्य चलने के बावजूद संघ कार्य अपने मार्ग से ना भटका, ना बंटा, ना रुका.

संघ संस्थापक होने का अहंकार उनके मन में लेशमात्र भी नहीं था. इसीलिए सरसंघचालक पद का दायित्व सहयोगियों का सामूहिक निर्णय होने कारण 1929 में उसे उन्होंने स्वीकार तो किया, परन्तु 1933 में संघचालक बैठक में उन्होंने अपना मनोगत व्यक्त किया. उसमें उन्होंने कहा –

“राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का जन्मदाता या संस्थापक मैं ना हो कर आप सब हैं, यह मैं भली-भांति जानता हूँ. आप के द्वारा स्थापित संघ का, आपकी इच्छानुसार, मैं एक दाई का कार्य कर रहा हूँ. मैं यह काम आपकी इच्छा एवं आज्ञा के अनुसार आगे भी करता रहूँगा तथा ऐसा करते समय किसी प्रकार के संकट अथवा मानापमान की मैं कतई चिंता नहीं करूँगा. 

आप को जब भी प्रतीत हो कि मेरी अयोग्यता के कारण संघ की क्षति हो रही है, तो आप मेरे स्थान पर दूसरे योग्य व्यक्ति को प्रतिष्ठित करने के लिए स्वतंत्र हैं. आपकी इच्छा एवं आज्ञा से जितनी सहर्षता के साथ मैंने इस पद पर कार्य किया है, इतने ही आनंद से आप द्वारा चुने हुए नए सरसंघचालक के हाथ सभी अधिकार सूत्र समर्पित करके उसी क्षण से उसके विश्वासु स्वयंसेवक के रूप में कार्य करता रहूँगा. मेरे लिए व्यक्तित्व के मायने नहीं है; संघ कार्य का ही वास्तविक अर्थ में महत्व है. अतः संघ के हित में कोई भी कार्य करने में मैं पीछे नहीं हटूंगा”

संघ संस्थापक डॉ. हेडगेवार के ये विचार उनकी निर्लेप वृत्ति एवं ध्येय समर्पित व्यक्तित्व का दर्शन कराते है.


सामूहिक गुणों की उपासना तथा सामूहिक अनुशासन, आत्मविलोपी वृत्ति स्वयंसेवकों में निर्माण करने हेतु भारतीय परंपरा में नए ऐसे समान गणवेश, संचलन, सैनिक कवायद, घोष, शिविर आदि कार्यक्रमों को संघ कार्य का अविभाज्य भाग बनाने का अत्याधुनिक विचार भी डॉक्टर जी ने किया. संघ कार्य पर होने वाली आलोचना को अनदेखा कर, उसकी उपेक्षा कर वादविवाद में ना उलझते हुए सभी से आत्मीय सम्बन्ध बनाए रखने का उनका आग्रह रहता था.

“वादो ना S वलम्ब्यः ” और “ सर्वेषाम् अविरोधेन” ऐसी उनकी भूमिका रहती थी. प्रशंसा और आलोचना में - दोनों ही स्थिति में डॉ. हेडगेवार अपने लक्ष्य, प्रकृति और तौर तरीकों से तनिक भी नहीं डगमगाते. संघ की प्रशंसा उत्तरदायित्व बढाने वाली प्रेरणा तथा आलोचना को आलोचक की अज्ञानता का प्रतीक मान कर वह अपनी दृढ़ता का परिचय देते रहे.

1936 में नासिक में शंकराचार्य विद्याशंकर भारती द्वारा डॉक्टर हेडगेवार को “राष्ट्र सेनापति” उपाधि से विभूषित किया गया, यह समाचार, समाचार पत्र में प्रकाशित हुआ. डॉक्टर जी के पास अभिनन्दन पत्र आने लगे. पर उन्होंने स्वयंसेवकों को सूचना जारी करते हुए कहा कि “हम में से कोई भी और कभी भी इस उपाधि का उपयोग ना करे. उपाधि हम लोगों के लिए असंगत है.” उनका चरित्र लिखने वालों को भी डॉक्टर जी ने हतोत्साहित किया. “तेरा वैभव अमर रहे माँ, हम दिन चार रहें ना रहें” यह परंपरा उन्होंने संघ में निर्माण की.

शब्दों से नहीं, आचरण से सिखाने की उनकी कार्य पद्धति थी. संघ कार्य की प्रसिद्धि की चिंता ना करते हुए, संघ कार्य के परिणाम से ही लोग संघ कार्य को महसूस करेंगे, समझेंगे तथा सहयोग एवं समर्थन देंगे, ऐसा उनका विचार था. “फलानुमेया प्रारम्भः” याने वृक्ष का बीज बोया है इसकी प्रसिद्धि अथवा चर्चा ना करते हुए वृक्ष बड़ा होने पर उसके फलों का जब सब आस्वाद लेंगे तब किसी ने वृक्ष बोया था, यह बात अपने आप लोग जान लेंगे, ऐसी उनकी सोच एवं कार्य पद्धति थी ।

इसीलिए उनके निधन होने के पश्चात् भी, अनेक उतार-चढाव संघ के जीवन में आने के बाद भी, राष्ट्र जीवन में अनेक उथल-पुथल होने के बावजूद संघ कार्य अपनी नियत दिशा में, निश्चित गति से लगातार बढ़ता हुआ अपने प्रभाव से सम्पूर्ण समाज को स्पर्श और आलोकित करता हुआ आगे ही बढ़ रहा है. संघ की इस यशोगाथा में ही डॉक्टर जी के समर्पित, युगदृष्टा, सफल संगठक और सार्थक जीवन की यशोगाथा है.








 रामनवमी विशेष : मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम भगवान विष्णु के ही अवतार हैं। भगवान विष्णु के अवतार लेने के कारणों में भक्तों के मन में आए विकारों को दूर करना, समस्त लोक में भक्ति का संचार करना, जन-जन के कष्टों का निवारण और भक्तों के लिए भगवान की प्रीति पा सकने की इच्छा पूरी करना प्रमुख हैं। सांसारिक जीवन में काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, मत्सर, अहंकार, व्यग्रता, आसक्ति, ममता, चिन्ता, असहिष्णुता, अधीरता असंयम और दर्प अनेक तरह के कष्ट होते हैं और उदात्त वृत्तियों के विकास में व्यवधान पड़ता है। रामचरितमानस में इन स्थितियों का वर्णन करते हुए गोस्वामी तुलसीदास जी कहते हैं कि, जब जब होई धर्म की हानि, बारहि असुर अधम अभिमानी। तब तब धर प्रभु विविध शरीरा, हरहि दयानिधि सच्जन पीड़ा। अर्थात जब -जब धर्म का ह्रास होता है, नीच और अभिमानी राक्षस बढ़ जाते हैं और अन्याय करने लगते हैं, पृथ्वी और वहां के निवासी कष्ट पाते हैं तब तब कृपानिधान प्रभु भाँति-भांति के दिव्य शरीर धारण कर सज्जनों की पीड़ा हरते हैं। एक भक्त के रूप में तुलसीदास जी का विश्वास है कि सारा जगत राममय है। सारे जगत में चारों ओर राम को देखना भक्ति की पराकाष्ठा है और समदर्शी होकर ऊपर से दिखने वाले विरोधों और उनसे उपजने वाली विपदाओं से उबरने का उपाय भी। संप्रति समानता से ज्यादा अनोखे, अद्वितीय, सबसे अलग, औरों से कुछ हटकर खुद को दिखने-दिखाने का रिवाज जोरों पर है। औरों से अलग होना निश्चय ही बहुमूल्य है, क्योंकि वह नवीनता लाता है। नवीनता मन के लिए रमणीय होती है और इसलिए वह प्रिय भी हो जाती है। उसे समाज में आदर मिलता है और पुरस्कृत भी किया जाता है, परंतु भिन्नता के अति आग्रह या दुराग्रह कुछ कठिन सवाल भी खड़े करने लगते हैं, जीवन यात्रा नहीं सधती। क्योकि सिर्फ इसी से एक और अनेक के बीच के रिश्ते प्राचीन काल से मनुष्य के सोच के केंद्र में रहे हैं। पुरा काल के सृष्टि के आख्यानों में एक यह भी है कि ईश्वर या परमात्मा को अकेले अच्छा नहीं लग रहा था। तब उसने एक से अनेक होने की इच्छा की। फिर जो भी दूसरा रचा गया उसमें वह स्वयं प्रवेश कर गया। इस आख्यान का एक आशय परमात्मा की उपस्थिति की व्याप्ति को दर्शाना है। ईशावास्योपनिषद् भी यही कहता है कि यह दुनिया ईश्वर की वासस्थली है। इसलिए यहां हर जगह ईश्वर की उपस्थिति है। इस विचार की पराकाष्ठा आदि शंकराचार्य के अद्वैत वेदांत में हुई जिसमें यह प्रतिपादित किया गया कि 'सर्वं खल्विदम् ब्रह्म' अर्थात जो कुछ है वह ब्रह्म ही है। सर्वव्यापी ब्रह्म, ईश्वर या परमात्मा की संकल्पना जीवन जीने के लिए एक सुदृढ़ आधार प्रदान करती है। तुलसीदास जी मानस में लिखते हैं "सियाराम मय सब जग जानी करहुं प्रनाम जोरि जुग पानी" अर्थात जगत को सीय राममय कहकर भी संभवतः यही भाव व्यक्त कर रहे हैं कि 'सारा जगत एक ही तत्व वाला है या एक ही तत्व का प्रकाश है' इस विचार की प्रतिष्ठा करते दिखते हैं।

वस्तुतः यह मान कर ही सृष्टि मात्र में गुणवत्ता और शक्ति की प्रतिष्ठा हो सकेगी और हम उनका वास्तविक मूल्य समझ सकेंगे। आज हम पृथ्वी, जल, वायु आदि सभी को उपभोग्य वस्तु और खुद को उपभोक्ता मान कर उनका बेहिसाब दोहन करते ' हैं। यह अलग बात है कि अब इस स्वार्थ वृत्ति का हानिकर पहलू सामने आने लगा है। यदि पूरा जगत राममय है तो वह भी श्रीराम की ही भांति पूजनीय वंदनीय हैं। श्रीराम सत्य, तप, तितिक्षा, संतोष, धैर्य और धर्मपरायणता की प्रतिमूर्ति हैं। श्रीराम का भाव परदुखकातरता के साथ प्रतिष्ठित है। राममय होने के साथ यह आशा भी बलवती होती है कि राम के अनुगामियों में इन सब सद्गुणों की वृद्धि होगी। दायित्व आने के साथ शक्ति की उपस्थिति होगी। विरोध - वैमनस्य की जगह आदर एवं सम्मान ले लेंगे। राम को समदर्शी, दीनबंधु, भक्तवत्सल और करुणाकर आदि कहा गया है। जो सीय राममय होगा, वह इन भावों से आप्लावित होगा। उसमें ये भाव उपस्थित होंगे। तब जगत की अनुभूति और प्रतीति की दृष्टि तथा पैमाना बदल जाएगा। राम भाव की उपस्थिति में साम्य देखना संभव होगा और सम्यक् व्यवहार भी सधेगा।सबमें किसी एक तत्व की उपस्थिति सबकी अनुकूलता को द्योतित करती है जिससे सबके हित की संभावना बनती है। ऐसे में सभी एक-दूसरे का भला करना चाहेंगे, क्योंकि तब दूसरा पराया नहीं रह जाएगा। ऐसे ही उदार व्यक्ति के लिए कहा गया कि 'निज' और 'पर' का भेद मिट जाता है। वह अपने में सबको और सबमें अपने को देखता है। इस नए समीकरण में परस्पर भरोसा मुख्य हो जाता है। तब प्रतिरोध कम होता जाता है और परस्पर समर्थन बढ़ता है। सबको अपने जैसा मानने के कई परिणाम होते हैं। अपने अस्तित्व बोध का विस्तार कर जो अपने लिए ठीक या प्रिय नहीं उसे दूसरों के साथ करने से बचते हैं। यह विचार जीवन का पाथेय हो जाता है। तभी 'सर्व' और 'सर्वोदय' की संकल्पना पूरी होगी, सर्वे भवंतु सुखिनः की कामना फलवती होंगी और रामराज्य का संकल्प पूरा होगा।

भेद-बुद्धि को जीवन में अपनाना कितना सतही, भ्रामक और हिंसक है इसका अनुभव हम सब अपने जीवन में नित्यप्रति करते रहते हैं। क्षुद्र मानसिकता वाला यह भाव विचलित कर देने वाला होता है। ऐसी पाप बुद्धि के चलते अहंकार प्रचंड होने लगता है। तब एक-दूसरे को नीचा दिखाना, चोट पहुंचाना, परवाह न करना और आधिपत्य जमाना आसान हो जाता है। अहं भाव की अनर्गल वृद्धि के बीच हम दूसरे या किसी अन्य का अस्तित्व ही नहीं स्वीकार करना चाहते। सीय राममय कहकर तुलसीदास समूची सृष्टि को प्रिय और अभिनंदनीय बनाते हैं। वह यह संदेश भी देते हैं कि जिस लोक में हम सभी विचरण करते हैं सौहार्द और सामंजस्य का आगार है, क्योंकि राम सबके हैं और सबमें उपस्थित हैं। लोकमानस में राम आज भी व्याप्त हैं, तो इसीलिए कि वे स्वयं ही लोकाराधक हैं।

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