गाज़ीपुर जनपद (उत्तर प्रदेश) के रायपुर गाँव की शांत-सुखद मिट्टी में 8 फ़रवरी 1991 की सुबह एक ऐसा बालक जन्मा, मानो किसी भोर की किरण ने मिट्टी में आशा का बीज रोप दिया हो। उस क्षण कोई नहीं जानता था कि यह साधारण-सा लगने वाला बालक आने वाले समय में संघर्ष, संकल्प और साधना की वह कथा गढ़ेगा, जिसे लोग मार्गदर्शक की तरह पढ़ेंगे। उसके जन्म के साथ मानो गाँव की हवा में एक मौन संकेत तैर गया मानो इस बालक की चाल में भविष्य की राहें छिपी हैं और उसकी आँखों में सपनों का एक शांत दीप जल रहा है।

चार पुत्रों और दो पुत्रियों के बीच सबसे छोटे तेज बहादुर मौर्य बचपन से ही ऐसी नैसर्गिक प्रखरता लिए हुए थे, जैसे किसी शांत झरने के भीतर गहराई से बहती बुद्धि की धारा हो। उनका स्वभाव संयमित, विचार परिपक्व और व्यवहार सौम्य था। गाँव के लोग उन्हें प्रेम-पूर्वक “गांधी जी” और “बुद्ध जी” कहकर पुकारते थे, क्योंकि उनके शब्दों में करुणा की मधुरता और निर्णयों में विवेक की स्पष्टता दिखती थी। उनकी आँखों में एक ऐसी मद्धिम पर दृढ़ चमक रहती थी, मानो वह वर्तमान के पन्नों को केवल पढ़ते ही नहीं, भविष्य के अध्यायों को भी समझ रहे हों।

जैसे ही उसकी उम्र ने दस वर्षों की दहलीज़ छुई, 11 जुलाई 1999 का दिन अचानक जीवन में एक ऐसा अध्याय बनकर आया जिसने पूरे परिवार की दिशा ही बदल दी। पिता चंद्रिका कुशवाहा का परिनिर्वाण उस घर के लिए किसी तूफ़ान की पहली गूँज जैसा था, एक ऐसा क्षण जिसने समय को दो हिस्सों में बाँट दिया। घर का आकाश मानो एक ही पल में सूना हो गया; आर्थिक कठिनाइयाँ, बढ़ती जिम्मेदारियाँ और भविष्य का अनिश्चित सन्नाटा एक साथ खड़े दिखाई देने लगे। माँ धानपति देवी ने उस शोक के बीच अपने छह बच्चों का हाथ थाम लिया, जैसे किसी टूटी नाव को डूबते जल में माँ के साहस ने किनारे की ओर मोड़ दिया हो। बड़ी बहनों और बड़े भाइयों ने भी उसी क्षण परिवार की डोर अपने हाथों में ले ली; किसी दीपक की लौ की तरह, वे आँधी में झुक तो गए, पर बुझे नहीं। उन्होंने घर को बिखरने नहीं दिया, बल्कि अपने त्याग और एकजुटता से उसे संभाले रखा।

पिता के परिनिर्वाण के बाद यह परिवार अभावों के बीच भी ऐसी अद्भुत एकता में ढल गया, जैसे कोई टूटा हुआ तंबूरा फिर भी एक ही सुर में गूँजने लगे। कुछ वर्षों के भीतर बड़े भाई ने परिवार की जिम्मेदारियों को इस दृढ़ता से सँभाला कि मानो घर की नींव को फिर से थाम लिया हो। दूसरी ओर, बहनें अपने ससुराल में रहते हुए भी तन-मन-धन से निरंतर सहयोग देती रहीं; उनका यह योगदान किसी दूर बसे दीपक की तरह था, जिसकी रोशनी घर तक पहुँचती रहती थी। यह सम्बन्धों का सामान्य निर्वाह नहीं था; यह त्याग, संस्कार और समर्पण की वह जीवित परम्परा थी जिसने परिवार को टूटने नहीं दिया। समय की कठिन राहों पर चलते हुए भी यह परम्परा परिवार को भीतर से बल देती रही और धीरे-धीरे उसे अधिक सुदृढ़ बनाती चली गई।

उसका बचपन अभावों की कड़ी धूप में गुज़रा, पर उसके सपनों पर कभी धूल नहीं जमी। कच्चे घर की मिट्टी, सीमित साधन, फटी किताबें और लालटेन की झिलमिलाती लौ, ये सब उसके लिए किसी बोझ की तरह नहीं थे, बल्कि उसी लौ में वह अपनी राह का दीप देखता था। उसने पढ़ाई को केवल काम नहीं, अपनी साधना मान लिया। जहाँ कई बच्चे परिस्थितियों की कठोरता से टूट जाते, वहाँ उसने मन ही मन यह बात थाम ली कि “मेहनत का कोई विकल्प नहीं होता।” गाँव की पगडंडियों पर उसके छोटे-छोटे कदम मानो भविष्य की किसी अदृश्य राह को गढ़ रहे थे। स्कूल की पुरानी सीढ़ियाँ उसके लिए किसी मंदिर की सीढ़ियों की तरह थीं, जहाँ हर दिन वह ज्ञान के सामने सिर झुकाकर आगे बढ़ता। उसके हर कदम में यह भरोसा छिपा था कि चाहे रास्ता कितना भी कठिन क्यों न हो, दृढ़ संकल्प का एक बीज समय के साथ पेड़ बनकर ही रहता है।

धीरे-धीरे उसके भीतर यह विचार गहराई पकड़ता गया कि शिक्षा केवल व्यक्तिगत उन्नति का साधन नहीं, बल्कि समाज की दिशा बदलने वाली शक्ति है। यह सोच उसके भीतर ऐसी जड़ें जमाती चली गई कि आगे चलकर पूरे परिवार के निर्णयों और दृष्टि का आधार बन गई। वर्ष 2008 से, अभावों के बीच रहते हुए भी परिवार ने एक दृढ़ संकल्प अपनाया कि घर के किसी भी बच्चे की पढ़ाई बीच में नहीं रुकेगी। भाइयों और बहनों ने अपनी कठिन परिस्थितियों को पीछे रखते हुए बच्चों को शहर में रखकर शिक्षा दिलाने की राह चुनी। उनका यह प्रयास किसी दीप-शृंखला की तरह था, जहाँ एक दीपक दूसरे को रोशन करता चला गया। इन सबके केंद्र में उसकी शिक्षा-सम्बंधी जागरूकता और उसकी दूरदृष्टि ही थी, जिसने पूरे परिवार को इस दिशा में प्रेरित किया कि ज्ञान ही वह विरासत है जो पीढ़ियों को समृद्ध करती है।

वह केवल अपने लिए पढ़ने वाला बालक नहीं रहा; समय के साथ वह विचार का वह स्रोत बन गया, जिसकी धार से कई रास्तों को दिशा मिलती गई। गाँव और रिश्तेदारी के बच्चों को पढ़ाई की ओर लौटाना, उन्हें शहर ले जाकर स्कूलों में दाखिला करवाना, रहने-खाने की व्यवस्था में साथ खड़ा होना, यह सब उसके स्वभाव का हिस्सा बन गया। वह एक विद्यार्थी भर नहीं था; वह मार्गदर्शन की उस प्रकाश-रेखा की तरह था, जो धुंध में भी रास्ता दिखाती है। उसके मार्गदर्शन से अनेक बच्चे फिर से शिक्षा की पगडंडी पर लौटे, आत्मविश्वास पाया और अपनी-अपनी मंज़िल की ओर बढ़ते गए। उसके भीतर मानो ऐसा दीप जलता था, जिसकी रोशनी किसी एक कमरे तक सीमित नहीं थी; वह आसपास के जीवनों को भी उजाला देती चलती थी।

समय के साथ उसका संसार निरंतर विस्तृत होता गया। इंटर कॉलेज से लेकर स्नातक और परास्नातक तक की यात्रा किसी समतल पथ की तरह नहीं थी; उसमें कठिन मोड़, अनिश्चित विराम और कई बार ऐसी खामोश घड़ियाँ भी थीं, जहाँ केवल धैर्य ही सहारा बनता है। फिर भी वह हर चुनौती को इस संतुलन से पार करता रहा, मानो मार्ग की कठोरता से अधिक उसे अपने भीतर का विश्वास आगे ले जा रहा हो। धीरे-धीरे यह भावना दृढ़ होती गई कि ग्रामीण परिवेश के बच्चों की राह केवल पुस्तकें न मिल पाने से नहीं रुकती। उनके भीतर आत्मविश्वास का टूटना, सामाजिक सहारा का अभाव और मानसिक संतुलन का डगमगाना भी उतना ही बड़ा अवरोध होता है। यही समझ उसके जीवन का उद्देश्य बनकर उभरती गई।

आज भी वह अपनी व्यक्तिगत उपलब्धियों तक सीमित रहना नहीं चाहता; उसका विचार है कि शिक्षा के माध्यम से समाज की मिट्टी इतनी सुदृढ़ बने कि प्रत्येक बच्चा बिना भय और संकोच के अपनी राह चुन सके। उसका विश्वास है कि ज्ञान का दिया केवल एक व्यक्ति का नहीं होता—उसकी रोशनी आसपास के अंधेरों को भी बदल सकती है।

संघर्षों की उसी लंबी श्रृंखला के बीच वह शोध की दुनिया में प्रवेश करता है। अपने जीवन के अनुभवों को ही शोध-दृष्टि का आधार बनाते हुए, वह मनो-सामाजिक कारकों और विद्यार्थियों की सीखने की प्रक्रिया के बीच नाजुक संबंधों को अपने अध्ययन का विषय बनाता है। यह केवल एक अकादमिक विषय नहीं, बल्कि उसके स्वयं के जीवन की प्रतिछाया है। कई बार कठिनाइयाँ आईं, कई बार परिस्थितियाँ निराशा की सीमा तक पहुँच गईं, फिर भी उसने कभी हार नहीं मानी, क्योंकि वह यह जान चुका था कि “जो रुक जाता है, वही सच में हार जाता है।”

अंततः वर्षों के संघर्ष, त्याग और तपस्या का वह क्षण आया, जिसने सारी मेहनत और संघर्ष को सार्थक बना दिया। 12 दिसंबर 2025 को काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के शिक्षा संकाय से उसे डॉक्टरेट की उपाधि प्राप्त हुई। यह केवल एक डिग्री नहीं थी; यह उस बालक की जीत थी, जिसने अभावों के बीच ज्ञान को अपना सबसे बड़ा सहारा बनाया। यह उसकी माँ की तपस्या की जीत थी, उसकी बहनों के त्याग की जीत थी, उसके भाइयों के परिश्रम की जीत थी, और उस पूरे परिवार की जीत थी, जिसने कभी हार मानना नहीं सीखा। यह क्षण केवल व्यक्तिगत उपलब्धि का प्रतीक नहीं, बल्कि यह विश्वास का द्योतक था कि संघर्ष की राह चाहे कितनी भी कठिन हो, दृढ़ संकल्प और एकजुटता के साथ हर चुनौती को पार किया जा सकता है।

अपने शैक्षणिक सफर में उन्होंने एम.ए. (अंग्रेजी), एम.एड., पीजीडीएचई, योग प्रमाणपत्र, सीसीसी, यूजीसी- नेट, सीटीईटी, यूपीटीईटी और एसटीईटी जैसी अनेक डिग्रियाँ और प्रमाणपत्र हासिल किए, जो उनके शिक्षा के प्रति अनवरत समर्पण और दृढ़ इच्छाशक्ति का जीवंत प्रमाण हैं।

अपने समाज में वह डॉक्टरेट उपाधि प्राप्त करने वाले पहले युवक बने। यह उपलब्धि केवल व्यक्तिगत सम्मान नहीं, बल्कि पूरे गाँव, क्षेत्र और समाज के लिए प्रेरणा का प्रतीक बन गई। उन्होंने कभी भी इस सफलता को अकेले अपना श्रेय नहीं माना। वह सदा यही कहते हैं कि “जो संघर्ष में हमारा हाथ थामे रखे, वे ही हमारी असली शक्ति हैं।”

आज यह परिवार सामाजिक, आर्थिक और वैचारिक रूप से पहले से कहीं अधिक सशक्त होता जा रहा है। शिक्षा ने न केवल इसे एक नई पहचान दी है, बल्कि जीवन की नई दिशा भी दिखाई है। सच ही कहा गया है कि “शिक्षा वह शेरनी का दूध है, जो जितना पीयेगा वह उतना दहाड़ेगा”। इस परिवार ने वह दूध केवल पिया ही नहीं, बल्कि आने वाली पीढ़ियों तक पहुँचाने का दृढ़ संकल्प भी लिया है। आज भी वह स्वयं को सीखने की प्रक्रिया में लगा एक साधारण विद्यार्थी ही मानता है। उसका लक्ष्य किसी पद या उपाधि तक सीमित नहीं है; यह उस व्यापक जिम्मेदारी से जुड़ा है, जो आने वाली पीढ़ियों को सही दिशा देने और उन्हें सशक्त बनाने से संबंधित है। वह सहायक आचार्य बनने के अपने लक्ष्य की ओर निष्ठा और परिश्रम के साथ अग्रसर है, और इसी प्रयास में अपने समाज और परिवार के लिए प्रेरणा का स्रोत बनता जा रहा है।

उसकी जीवन-यात्रा हमें यह सिखाती है कि गरीबी कमजोरी नहीं, संघर्ष अभिशाप नहीं, और अभाव अंत नहीं होते। ये केवल वे सीढ़ियाँ हैं, जिन पर चढ़कर मनुष्य अपनी मंज़िल तक पहुँचता है। उसकी कहानी हर उस व्यक्ति की कहानी है, जो सीमित साधनों के बावजूद असीम सपने देखने का साहस रखता है और अपने विश्वास और परिश्रम से उन्हें साकार करता है।  


मशहूर शायर साहिर लुधियानवी साहब का ये शेर तेजबहादुर जी के जीवन को चरितार्थ करता है-

हज़ार बर्क़ गिरे लाख आँधियाँ उट्ठें, वो फूल खिल के रहेंगे जो खिलने वाले हैं

“फूल बेचने वाले के हाथों में खुशबू रह ही जाती है।” उसी तरह, तेजबहादुर जी के जीवन से शिक्षा की सुगंध, संस्कार की महक और संघर्ष की प्रेरणा निरंतर बहती रहेगी। यही उनकी वास्तविक, जीवंत और अमर सफलता है। एक ऐसी विरासत, जो पीढ़ियों तक प्रकाश और मार्गदर्शन देती रहेगी।

स्रोत एवं स्वीकृति: यह आलेख डॉ. तेज बहादुर मौर्य द्वारा स्वयं प्रदत्त जानकारी पर आधारित है तथा उनकी लिखित अनुरोध  से प्रकाशित किया जा रहा है। सभी तथ्यों की जिम्मेदारी सूचना प्रदाता की है।