कविता: "लोकतंत्र का मंदिर"

 लेखक: ई. विजय तिवारी 

ई. विजय तिवारी


लोकतंत्र का यह मंदिर है ,

बलिदानों से पोषित है ।

जनसेवा की दीवारें हैं ,

तीन स्तंभ सहारे हैं।।१।।

जो भरा शुद्धता से सेवक है ,

कसे कसौटी खरा रहा है ।

वही लोकतंत्र को सींचता है,

 सेवा अमृत का पीता है।।२।।

लोकतंत्र वह जीवन है ,

जंता बीच से यापन है ।

शहद श्रवण दर्द जन के है ,

अमृत पान निदान जिसके है ।।३

जन सेवा संवाद की शक्ति ,

लग जाती है जिनको भक्ति।

मिलती है जिससे शक्ति ,

 जीवन खुशबू से भर देती ।।४

कार्य बसा हृदय है जिसके ,

जो आश्रितों के दर्द को समझे ।

जीवन दान लोकतंत्र को देते ,

जनमानस चलता उसके पीछे।।५

हृदय प्रफुल्लित से जो सेवक है,

गंगा नीर सी नियती है ।

जन सेवा वह सिंधु है ,

 गंगा स्वयं मिलती जिसमे है।।६

पद पैसौं पर जो न गिरा ,

लालच न रही ,न स्वार्थ रहा ।

जन पीड़ा हरण हृदय बसा, 

यश न उसका फीका पड़ा ।।७

 न भ्रष्टाचार अगोचर रहा ,

न विषय भोग तन पर रहा ।

मुख मौन तन लीन रहा ,

जनसेवा ही सर्वोपरि धर्म रहा।।८।।

अपना पराया ना भेद रहा ,

प्रांत क्षेत्र सब एक रहा ।

नर -नारी सम्मान बसा ,

नेता वही सर्बोत्तम रहा ।।९।।

आंखों में आशा पढ़ लेता ,

उन्नति का राग भर देता ।

गरीबों की आंखों को पढ़ते ,

आशा पर खरे उतरते रहते ।।१०।।

ऐसे लोकतंत्र को जो है समझता ,

जन-जन के दिल में बसता ।

जननायक सा पुकारे जाते ,

दुनिया को भी राह दिखाते ।।११।।

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