यूं तो वीर सावरकर को 5 फरवरी, 1948 को ही गिरफ्तार किया जा चुका था, लेकिन दिल्ली नहीं लाया गया था। मुंबई की ही आर्थर रोड जेल में रखा गया था। 13 मई को नोटिस से एलान हुआ कि दिल्ली के लाल किले में महात्मा गांधी जी की हत्या का मुकदमा चलाया जाएगा, जज होंगे कानपुर के डिस्ट्रिक्ट जज आत्मा चरण और पहली तारीख होगी 27 मई। अगले दिन सावरकर का जन्मदिन था।
लाल किले में इससे पहले दो बड़े मशहूर मुकदमे लड़े जा चुके थे, पहले मुकदमे में 1857 की क्रांति के बाद बहादुरशाह जफर को रंगून निर्वासित करने वाला फैसला यहीं हुआ था, दूसरा था आजाद हिंद फौज के अधिकारियों पर 1945 में हुआ मुकदमा।
सो आजादी के बाद ये पहला केस था। ये कोर्ट रूम 23 फुट चौड़ा और 100 फुट लंबा था। लाल किले के अंदर ब्रिटिश मिलिट्री के कैंप की दो मंजिला इमारत के टाप फ्लोर पर बने हाल को अदालत में बदल दिया गया था। ग्राउंड फ्लोर के हाल में केस के सारे कागजात को सुरक्षित रखा गया था और सुरक्षा में दिल्ली के बजाय बांबे पुलिस थी।
इस एलान से दो दिन पहले अचानक सावरकर को आर्थर रोड जेल से मुंबई के सीआइडी आफिस ले जाकर बाकी आरोपियों के साथ फोटो करवाया गया। सावरकर ने भांप लिया कि साजिश है, इस फोटो को सुबूत के तौर पर किसी पुरानी तारीख का बताकर कोर्ट में पेश कर सकते हैं, तो ना केवल उन्होंने मुंबई के चीफ मजिस्ट्रेट को लिखा बल्कि श्यामा प्रसाद मुखर्जी को भी, मुखर्जी ने सरदार पटेल से शिकायत की। उसके बाद सावकरकर को 25 मई को फ्लाइट से दिल्ली लाया गया।
लाल किले में ही उन्हें 12 फुट चौड़ी और इतनी ही लंबी बैरक में रखा गया। सुनवाई के पहले दिन अदालत में 200 कुर्सियां लगाई गई थीं, प्रेस और गणमान्य अतिथियों के बैठने की भी व्यवस्था की गई थी। यहां तक कि कानून मंत्री डा. भीमराव आंबेडकर भी पत्नी के साथ 28 जुलाई को कार्यवाही देखने आए थे।
पहले दिन सावरकर तीसरी लाइन में लकड़ी की बेंच पर बैठे थे। उनके वकील ने जज को उनके खराब स्वास्थ्य का हवाला दिया तो उनको पहली लाइन में एक बैक कुशन वाली कुर्सी उपलब्ध करवाई गई। सावरकर शर्ट, धोती, खुले कालर वाला कोट, काली टोपी और अपने खास किस्म का चश्मा पहनकर आए थे, जिसमें कान वाली कमानी नहीं होती।
सावरकर के वकील थे एलबी भोपटकर, दो सहयोगी भी थे, बाद में पटना के बैरिस्टर आफ ला पीआर दास को भी जोड़ा गया, जो खासतौर पर सरकारी गवाह बने बडग़े के काउंटर के लिए थे। यूं अलग अलग आरोपियों के अलग अलग वकील थे, जिनमें से परचुरे के वकील पीएल ईनामदार को तो एक दिन सावरकर ने अपनी बैरक मे भी बुलाकर तीन घंटे तक मुलाकात की, तारीफ की। सावरकर की बैरक के बारे में उन्होंने ही लिखा था, ईनामदार ने ही लिखा कि, 'सावरकर और गोडसे पास में बैठते थे, लेकिन एक दूसरे से बात नहीं करते थे। बाकी लोग आपस में मजाक करते रहते थे।'
सुबूतों की रिकार्डिंग 24 जून से शुरू हुई और छह नवंबर तक चलती रही। 149 लोगों की गवाहियां हुईं और सुबूतों को लेकर 720 पेज भर गए थे। 10 नवंबर को नाथूराम गोडसे का बयान दर्ज हुआ, लिखित बयान को नाथूराम ने पांच घंटे में पढ़ा, जबकि बीस तारीख को सावरकर ने अपना लिखित बयान पढ़ा, पूरे 57 पेज का था, जिसमें 23 बार दिल्ली का जिक्र था।
इसमें उस आरोप का भी जिक्र था कि पांच-छह अगस्त को गोडसे व आप्टे उन्हीं के साथ हिंदू कन्वेंशन में भाग लेने दिल्ली आए थे। सावरकर ने खुद पर लगे आरोपों का एक एक करके जवाब दिया और बताया कि कैसे कोई उनके घर 'सावरकर सदन' में आकर भी उनसे मिले जरूरी नहीं। क्योंकि उनके सचिव और एक पत्रकार भी नीचे के फ्लोर पर रहते हैं और वो खुद खराब स्वास्थ्य के चलते बेहद कम लोगों से मिलते हैं।
सावरकर ने बताया कि जिस अखबार 'अग्रणी' के लिए उन्होंने फंड दिया, उसके संपादक गोडसे व आप्टे के आग्रह पर कभी भी उसमें लिखा तक नहीं। पूरे ढाई घंटे तक वह धारा प्रवाह लाल किले में बनी उस इमारत में बोलते रहे। रोज हजारों की जनता उनके दर्शन के लिए लाल किले पहुंचती थी। गांधी हत्या का ये ट्रायल नौ महीने तक चला, फैसला अगले साल 10 फरवरी 1949 को सुनाया गया।
सावरकर के बरी होने के बाद हिंदू महासभा की योजना थी कि सावरकर को लेकर पूरी दिल्ली में बड़ी शोभायात्रा निकाली जाए, उनको चाहने वालों की एक बड़ी भीड़ लाल किले के बाहर इकट्ठा हो चुकी थी, लेकिन पंजाब पब्लिक सिक्योरिटी एक्ट के तहत दिल्ली के डिस्ट्रिक मजिस्ट्रेट ने आदेश दिया कि सावरकर फौरन दिल्ली छोड़ दें और सावरकर के दिल्ली में प्रवेश पर तीन महीने के लिए बैन लगा दिया। सावरकर को चुपचाप सुरक्षा में मुंबई ले जाया गया, दिल्ली में रुकने नहीं दिया गया।
लेकिन मुकदमे की एक और दिलचस्प घटना मनोहर मालगांवकर की किताब 'द मैन हू किल्ड गांधी' में मिलती है। एक दिन सावरकर के वकील भोपटकर हिंदू महासभा के दिल्ली कार्यालय में केस के कागज पढ़ रहे थे कि अचानक एक फोन पर उन्हें बुलाया गया।
दूसरी तरफ बाबा साहेब आंबेडकर थे, उनसे कहा कि आज शाम मुझे मथुरा रोड के छठे मील के पत्थर पर मिलिए. भोपटकर हैरान थे, वहां पहुंचे थे बाबा साहेब अपनी कार में इंतजार कर रहे थे, अकेले, खुद ही ड्राइविंग सीट पर थे, उन्हें बैठाकर ले गए और आगे जाकर कुछ मिनट बाद कार रोकी, फिर उनसे कहा कि, 'तुम्हारे क्लाइंट के खिलाफ कोई रीयल चार्ज नहीं है, बेकार सुबूत बनाए गए हैं। केबिनेट में भी लोग इसके खिलाफ हैं, खुद सरदार पटेल भी। तुम ये केस जीतोगे'।))
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